गुरुवार, 27 मई 2010

अंकिता पुरोहित कागदांश की हिन्दी कविता




अंकिता पुरोहित "कागदांश" की हिन्दी कविता



मैं ही थकती हूं



वे
तोड़ते है पत्थर
हर रोज भरपूर मेहनत से
बहाते है पसीना
होम कर निज बदन
माना निकाल ही लेंगे
चमचमाता हीरा ।

अभी लगन है
श्रम के प्रति
कर रहे अपना काम
विश्वास से,
ईमान से,
रोकते नहीं उल्टे
आंधी और तुफान
जैसे कि पा ही लेंगे
अपना मुकाम।

मैं देखती हूं
एक-टक
सुनती हूं
टक-टक
वे नहीं थकते
मैं ही थकती हूं
देखते-देखते।

उनकी आंखों में
सपना हैं।
सपनों में ही हो सकता है हीरा
मेरी आंखों मे तो
वे ही है हीरा।

शुक्रवार, 7 मई 2010

अंकिता पुरोहित कागदांश की हिन्दी कविता


बेटी
खेलती जब
घर के आंगन में
गूंज जाता था घर
पाजेब की झनकार से


मॉं खिलाती थी खाना
अपने हाथों से
दादी सुनाती थी कहानी
सुनहरी रातों में

पिताजी देते थे ज्ञान
अच्छे संस्कारों के
दादा सुनाते थे किस्से
अपने बीते जमाने के

बहन रखती ख्याल
देती थी साथ
ज्ञान की बातों में
भाई मारता फटकार
मगर दबी दबी सी
मुस्कान के साथ
परन्तु रखता पुरा ध्यान
मेरी हर बातों का

याद आते हैं
वे प्यार भरे दिन
क्यो कर दिया
विदा मुझे वहॉं से
क्यूं बनाया है
यह दस्तूर संसार ने