शुक्रवार, 7 मई 2010

अंकिता पुरोहित कागदांश की हिन्दी कविता


बेटी
खेलती जब
घर के आंगन में
गूंज जाता था घर
पाजेब की झनकार से


मॉं खिलाती थी खाना
अपने हाथों से
दादी सुनाती थी कहानी
सुनहरी रातों में

पिताजी देते थे ज्ञान
अच्छे संस्कारों के
दादा सुनाते थे किस्से
अपने बीते जमाने के

बहन रखती ख्याल
देती थी साथ
ज्ञान की बातों में
भाई मारता फटकार
मगर दबी दबी सी
मुस्कान के साथ
परन्तु रखता पुरा ध्यान
मेरी हर बातों का

याद आते हैं
वे प्यार भरे दिन
क्यो कर दिया
विदा मुझे वहॉं से
क्यूं बनाया है
यह दस्तूर संसार ने

10 टिप्‍पणियां:

  1. बचपन की यादें और ये रीति? ठीक कहा आपने।

    घर की रौनक जो थी अबतक घर बसाने को चली
    जाते जाते उसके सर को चूमना अच्छा लगा

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  2. बहुत सुन्दर लिखा है आपने. भविष्य के लिए शुभ-कामनाएं

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  3. सीधी, सच्ची और अच्छी सोच, शब्द और भाव

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  4. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

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  5. अब कहां वे दिन वे जज़्वात, वे संस्कार -----सुन्दर स्म्रिति-कविता.

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  6. बाई अंकिता,

    कविता भोत सुणी है. बांच'र मन घणो राजी होयो. म्हानै ठा नी हो कै आप भी लिखो हो. आपरी सुन्दर रचना खातर मोकळी-मोकळी बधाई. बड़ा रो आशीर्वाद अर छोटां रो प्यार आपरै सागै है, आप नित नुइं ऊंचाई नै छुओ.

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  7. आ बाई, थे तो भोत सूणी कविता मांडी है.............

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