रविवार, 5 दिसंबर 2010

अंकिता पुरोहित "कागदांश" की राजस्थानी कविता


म्हारा दादो जी

जद तक
दादो जी हा
घर में डर हो
दादो जी रै गेडियै रो।

गेडिये रो ज्यादा
पण दादोजी रो कम
डर लागतो म्हानै।

दादो जी
घर री
नान्ही मोटी जिन्सा
अर खबरां माथै
झीणी निजर राखता
बां री जूनी
मोतिया उतरयोडी
आख्यां सूं पड़तख
की नूं सूझतो
पण हीयै री आंख सूं
सो कीं देखता
म्हारा दादो जी।

घर जित्ती ई
परबीती री चिंता
अखबार भोळावंतो
बा नै हरमेस
अर बै आखै दिन
चींतता घर आयां बिच्चै
जगती री चिंतावां नै।

अखबार समूळो बांचता

विज्ञापन तक टांचता
भूंडा विज्ञापन
अर फिल्मी पान्ना
हाथ नी लागण देंवता
म्हां टाबरा रै
फाड़ च्यार पुड़द कर’र
राख लेंवता सिराणै नीचे
जीमती बरियां
गऊ ग्रास राखण ताईं
की पान्ना देंवता दादी नै
जीमती बरियां
इयां ई करण सारू।

टाबरो पढल्यो दो आंक !
पढ्योड़ो-सीख्योड़ो ई काम आवै !!
इण रट रै बिचाळै
खुद पढता आखो दिन
पढता- पढता ई
गया परा दूर म्हा सूं
पण आज भी घर में
दादो जी री बातां रो डर है
डर है भोळावण रो !

आज भी म्हे टाबर
विज्ञापन अर फिल्मी पान्ना
टाळ’र बांचां अखबार
कै बकसी दादो जी !


दादो जी कोनीं आज
फगत गेडियो है
एक कूंट धरियो
आज डर नी है
गेडियै रो ।

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

अंकिता पुरोहित ‘कागदांश’ की हिन्दी कविता

अंकिता पुरोहित ‘कागदांश’ की हिन्दी कविता

मजदूर


जो कांटो से
खेले समूल
वही
होता है फूल!

जो देता है दस्तक
दरवाजों पर आकर
वही तो होता है
दिपता भास्कर!

जो फोड़ दे
शत्रुता के गागर
वही तो होता है
लहराता सागर!

जो सुरज की तपिश में
जलाता है बदन
कमाता है स्वपन
गरीबी में भी
रखता है गम दूर
वही तो होता है मजदूर!

फूल को नमन मेरा
मेहनत के दस्तूर को नमन
खटते मजदूर को नमन!

शुक्रवार, 11 जून 2010

अंकिता पुरोहित कागदांश की हिन्दी कविता

अंकिता पुरोहित "कागदांश" की हिन्दी कविता

पिताजी

देखते है सब
मॉं की ममता को,
ममत्व को,
नहीं देख पाता कोई
पिता को
उनके खुशी भरे मन को;
बनती है जब बेटी कुछ
सब सराहते हैं
मॉं के संस्कार ।

नहीं देख पाता कोई
पिता को
उनके मन में
छिपे हुए नाज को,
उनके आत्म विश्वास को।

होती है जब विदा बेटी
देखते है सब
मॉं के आंसुओ को !

नहीं देख पाता कोई
पिता को,
उनके मन में छिपे
दर्द को

विदा करते वक्त
उनके मन में उठते-
अजीब से उफान को,
नहीं देख पाता कोई

अगर कोई देख पाता है
तो वह है बेटी
सिर्फ एक बेटी !

गुरुवार, 27 मई 2010

अंकिता पुरोहित कागदांश की हिन्दी कविता




अंकिता पुरोहित "कागदांश" की हिन्दी कविता



मैं ही थकती हूं



वे
तोड़ते है पत्थर
हर रोज भरपूर मेहनत से
बहाते है पसीना
होम कर निज बदन
माना निकाल ही लेंगे
चमचमाता हीरा ।

अभी लगन है
श्रम के प्रति
कर रहे अपना काम
विश्वास से,
ईमान से,
रोकते नहीं उल्टे
आंधी और तुफान
जैसे कि पा ही लेंगे
अपना मुकाम।

मैं देखती हूं
एक-टक
सुनती हूं
टक-टक
वे नहीं थकते
मैं ही थकती हूं
देखते-देखते।

उनकी आंखों में
सपना हैं।
सपनों में ही हो सकता है हीरा
मेरी आंखों मे तो
वे ही है हीरा।

शुक्रवार, 7 मई 2010

अंकिता पुरोहित कागदांश की हिन्दी कविता


बेटी
खेलती जब
घर के आंगन में
गूंज जाता था घर
पाजेब की झनकार से


मॉं खिलाती थी खाना
अपने हाथों से
दादी सुनाती थी कहानी
सुनहरी रातों में

पिताजी देते थे ज्ञान
अच्छे संस्कारों के
दादा सुनाते थे किस्से
अपने बीते जमाने के

बहन रखती ख्याल
देती थी साथ
ज्ञान की बातों में
भाई मारता फटकार
मगर दबी दबी सी
मुस्कान के साथ
परन्तु रखता पुरा ध्यान
मेरी हर बातों का

याद आते हैं
वे प्यार भरे दिन
क्यो कर दिया
विदा मुझे वहॉं से
क्यूं बनाया है
यह दस्तूर संसार ने

रविवार, 18 अप्रैल 2010

ओम पुरोहित ‘कागद’ की चार हिन्दी कविताएं

१. थार में प्यास

जब लोग गा रहे थे
पानी के गीत
हम सपनों में देखते थे
प्यास भर पानी।
समुद्र था भी
रेत का इतराया
पानी देखता था
चेहरों का
या फिर
चेहरों के पीछे छुपे
पौरूष का ही
मायने था पानी।

तलवारें
बताती रहीं पानी
राजसिंहासन
पानीदार के हाथ ही
रहता रहा तब तक।

अब जब जाना
पानी वह नहीं था
दम्भ था निरा
बंट चुका था
दुनिया भर का पानी
नहीं बंटी
हमारी अपनी थी
आज भी थिर है
थार में प्यास।

२. स्वप्नभक्षी थार

हमने
गमलों में
नहीं उगाए सपने
रोप दिए थार में।

स्वप्नभक्षी थार
इतराया
बिम्बाई मृगतृष्णा
और दबी आहट
भख गया
रोपित सपने।
आरोपित हम
देखते रहे
आसमान में
उभरे अक्स बादल का
नहीं उभरा!

उनके सपने
गमलों रूपे
अंकुराए
गर्वाए
भरपूर लहलहाए
अब वे काट रहे हैं
सपनों की फसल
हमारे कटते नहीं दिन।

३. अभिव्यक्त नहीं मन

अपने हाथों
रचा अपना संसार
अपने शब्द
अपनी भाषा
फिर भी
अभिव्यक्त नहीं मन।

तन ढकना
पेट भरना
छत ढांप लेना
यही तो नहीं
जीवित होने का साक्षी।

पंचभूत की रची काया
रखती है
कोमल मन में
रची बसी संवेदना
मुखरित होने का
पालती सपना।

सालती है
जीवेषणा भी
कुछ न पाकर
जैसे कि एक स्त्री
मानव होने का
झेलती है दंश।

अंश हैं सब
उस परमात्मा के
तो फिर क्यों हैं
अपनी-अपनी भाषाएं
अपनी-अपनी आशाएं
यदि हैं भी
तो क्यों अभिव्यक्त नहीं मन
किसी-किसी का।

४. काया का भाड़ा माया

पत्थर तोड़ती
उस महिला को
या फिर
दिन तोड़ती अबला को
देख ही लिया कवि ने
नहीं देखा;
पत्थर टूटा कि नहीं
दिन टूटा कि नहीं
झांका नहीं वहां
जहां टूटा था कुछ
दरक गया था सब कुछ।

हा!
वह तो दे ही दिया था
उस महिला ने
परोस ही दिया था उसे
थाली में बापू ने
भरी पंचायत
जब वह बाला थी।

आज ही जाना
वह तो दिल था
दीवाना नहीं था
उसका दिल
दीवाने तो लोग थे
काया के
काया का भाड़ा माया
माया की मार से
टूट ही गया था दिल।