रविवार, 18 अप्रैल 2010

ओम पुरोहित ‘कागद’ की चार हिन्दी कविताएं

१. थार में प्यास

जब लोग गा रहे थे
पानी के गीत
हम सपनों में देखते थे
प्यास भर पानी।
समुद्र था भी
रेत का इतराया
पानी देखता था
चेहरों का
या फिर
चेहरों के पीछे छुपे
पौरूष का ही
मायने था पानी।

तलवारें
बताती रहीं पानी
राजसिंहासन
पानीदार के हाथ ही
रहता रहा तब तक।

अब जब जाना
पानी वह नहीं था
दम्भ था निरा
बंट चुका था
दुनिया भर का पानी
नहीं बंटी
हमारी अपनी थी
आज भी थिर है
थार में प्यास।

२. स्वप्नभक्षी थार

हमने
गमलों में
नहीं उगाए सपने
रोप दिए थार में।

स्वप्नभक्षी थार
इतराया
बिम्बाई मृगतृष्णा
और दबी आहट
भख गया
रोपित सपने।
आरोपित हम
देखते रहे
आसमान में
उभरे अक्स बादल का
नहीं उभरा!

उनके सपने
गमलों रूपे
अंकुराए
गर्वाए
भरपूर लहलहाए
अब वे काट रहे हैं
सपनों की फसल
हमारे कटते नहीं दिन।

३. अभिव्यक्त नहीं मन

अपने हाथों
रचा अपना संसार
अपने शब्द
अपनी भाषा
फिर भी
अभिव्यक्त नहीं मन।

तन ढकना
पेट भरना
छत ढांप लेना
यही तो नहीं
जीवित होने का साक्षी।

पंचभूत की रची काया
रखती है
कोमल मन में
रची बसी संवेदना
मुखरित होने का
पालती सपना।

सालती है
जीवेषणा भी
कुछ न पाकर
जैसे कि एक स्त्री
मानव होने का
झेलती है दंश।

अंश हैं सब
उस परमात्मा के
तो फिर क्यों हैं
अपनी-अपनी भाषाएं
अपनी-अपनी आशाएं
यदि हैं भी
तो क्यों अभिव्यक्त नहीं मन
किसी-किसी का।

४. काया का भाड़ा माया

पत्थर तोड़ती
उस महिला को
या फिर
दिन तोड़ती अबला को
देख ही लिया कवि ने
नहीं देखा;
पत्थर टूटा कि नहीं
दिन टूटा कि नहीं
झांका नहीं वहां
जहां टूटा था कुछ
दरक गया था सब कुछ।

हा!
वह तो दे ही दिया था
उस महिला ने
परोस ही दिया था उसे
थाली में बापू ने
भरी पंचायत
जब वह बाला थी।

आज ही जाना
वह तो दिल था
दीवाना नहीं था
उसका दिल
दीवाने तो लोग थे
काया के
काया का भाड़ा माया
माया की मार से
टूट ही गया था दिल।